Sunday 30 November 2014

इंटरनेट



इंटरनेट का सफर१९७० के दशक मेंविंट सर्फ (Vint Cerf) और बाब काहन् (Bob Kanh) ने शुरू किया गया। उन्होनें एक ऐसे तरीके का आविष्कार कियाजिसके द्वारा कंप्यूटर पर किसी सूचना को छोटे-छोटे पैकेट में तोड़ा जा सकता था और दूसरे कम्प्यूटर में इस प्रकार से भेजा जा सकता था कि वे पैकेट दूसरे कम्प्यूटर पर पहुंच कर पुनः उस सूचना कि प्रतिलिपी बना सकें - अथार्त कंप्यूटरों के बीच संवाद करने का तरीका निकाला। इस तरीके को ट्रांसमिशन कंट्रोल प्रोटोकॉल {Transmission Control Protocol (TCP)} कहा गया।
सूचना का इस तरह से आदान प्रदान करना तब भी दुहराया जा सकता है जब किसी भी नेटवर्क में दो से अधिक कंप्यूटर हों। क्योंकि किसी भी नेटवर्क में हर कम्प्यूटर का खास पता होता है। इस पते को इण्टरनेट प्रोटोकॉल पता {Internet Protocol (I.P.) address} कहा जाता है। इण्टरनेट प्रोटोकॉल (I.P.) पता वास्तव में कुछ नम्बर होते हैं जो एक दूसरे से एक बिंदु के द्वारा अलग-अलग किए गए हैं।
सूचना को जब छोटे-छोटे पैकेटों में तोड़ कर दूसरे कम्प्यूटर में भेजा जाता है तो यह पैकेट एक तरह से एक चिट्ठी होती है जिसमें भेजने वाले कम्प्यूटर का पता और पाने वाले कम्प्यूटर का पता लिखा होता है। जब वह पैकेट किसी भी नेटवर्क कम्प्यूटर के पास पहुंचता है तो कम्प्यूटर देखता है कि वह पैकेट उसके लिए भेजा गया है या नहीं। यदि वह पैकेट उसके लिए नहीं भेजा गया है तो वह उसे आगे उस दिशा में बढ़ा देता है जिस दिशा में वह कंप्यूटर है जिसके लिये वह पैकेट भेजा गया है। इस तरह से पैकेट को एक जगह से दूसरी जगह भेजने को इण्टरनेट प्रोटोकॉल {Internet Protocol (I.P.)} कहा जाता है।
अक्सर कार्यालयों के सारे कम्प्यूटर आपस में एक दूसरे से जुड़े रहते हैं और वे एक दूसरे से संवाद कर सकते हैं। इसको Local Area Network (LAN) लैन कहते हैं। लैन में जुड़ा कोई कंप्यूटर या कोई अकेला कंप्यूटरदूसरे कंप्यूटरों के साथ टेलीफोन लाइन या सेटेलाइट से जुड़ा रहता है। अर्थातदुनिया भर के कम्प्यूटर एक दूसरे से जुड़े हैं। इण्टरनेटदुनिया भर के कम्प्यूटर का ऎसा नेटवर्क है जो एक दूसरे से संवाद कर सकता है।

·         1969 .: अमेरिकी रक्षा विभाग के एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट्स एजेंसी (APRA) ने सं.रा.अमेरिका के चार विश्वविद्यालयों के कम्प्यूटरों की नेटवर्किंग करके इंटरनेट 'अप्रानेट' (APRANET) की शुरुआत की। इसका विकासशोधशिक्षा और सरकारी संस्थाओं के लिए किया गया था। इसका एक अन्य उद्देश्य था आपात स्थिति में जबकि संपर्क के सभी साधन निष्क्रिय हो चुके होंआपस में सम्पर्क स्थापित किया जा सके। 1971 तक एपीआरए नेट लगभग 2 दर्जन कम्प्यूटरों को जोड़ चुका था।
·         1972 .: इलेक्ट्रॉनिक मेल अथवा -मेल की शुरुआत।
·         1973 .: ट्रांसमिशन कंट्रोल प्रोटोकॉलइंटरनेट प्रोटोकॉल (टीसीपी/आईपीको डिजाइन किया गया। 1983 तक आते-आते यह इंटरनेट पर दो कम्प्यूटरों के बीच संचार का माध्यम बन गया। इसमें से एक प्रोटोकॉलएफ टी पी (फाइल ट्रांसफर प्रोटोकॉलकी सहायता से इंटरनेट प्रयोगकर्ता किसी भी कम्प्यूटर से जुड़कर फाइलें डाउनलोड कर सकता है।
·         1983 .: अप्रानेट के मिलेट्री हिस्से को मिलनेट (MILNET) में डाल दिया गया।
·         1986 .: यूएसनेशनल साइंस फाउंडेशन (NSF) ने एनएसएफनेट (NSFNET) लाँच किया। यह पहला बड़े पैमाने का नेटवर्क थाजिसमें इंटरनेट तकनीक का प्रयोग किया गया था।
·         1988 .: फिनलैंड के जाक्र्को ओकेरीनेने ने इंटरनेट चैटिंग का विकास किया।
·         1989 .: मैकगिल यूनीवर्सिटीमाँट्रियाल के पीटर ड्यूश ने प्रथम बार इंटरनेट का इंडेक्स (अनुक्रमणिकाबनाने का प्रयास किया। थिंकिंग मशीन कार्पोरेशन के ब्रिऊस्टर कहले ने एक अन्य इंडेक्सिंग सिक्सडडब्ल्यू  आई एस (वाइड एरिया इंफॉर्मेशन सर्वरका विकास किया। सीईआरएन (यूरोपियन लेबोरेटरी फॉर पाटकल फिजिक्सके बर्नर्स-ली ने इंटरनेट पर सूचना के वितरण की एक नई तकनीक का विकास कियाजिसे अंततवल्र्ड वाइड वेब कहा गया। यह वेब हाइपरटेक्स्ट पर आधारित हैजो कि किसी इंटरनेट प्रयोगकर्ता को इंटरनेट की विभिन्न साइट्स पर एक डाक्यूमेंट को दूसरे से जोड़ता है। यह कार्य हाइपरलिंक (विशेष रूप से प्रोग्राम किए गए शब्दोंबटन अथवा ग्राफिक्सके माध्यम से होता है।
·         1991 .: प्रथम यूज़र फ्रेंडली इंटरफेसगोफर का मिन्नेसोटा यूनिवर्सिटी (सं.राअमेरिकामें विकास। तब से गोफर सर्वाधिक विख्यात इंटरफेस बना हुआ हैएनएसएफनेट को कॉमॢशयल ट्रैफिक के लिए खोला गया।
·         1993 .: 'नेशनल सेंटर ऑफ सुपरकम्प्यूटिंग एप्लीकेशंसÓ के मार्क एंड्रीसन ने मोजेइक नामक नेवीगेटिंग सिस्टम का विकास किया। इस सॉफ्टवेयर के द्वारा इंटरनेट को मैगज़ीन फॉर्मेट में पेश किया जाने लगा। इस सॉफ्टवेयर से टेक्स्ट और ग्राफिक्स इंटरनेट पर उपलब्ध हो गए। आज भी यह वल्र्ड वाइड वेब के लिए मुख्य नेवीगेटिंग सिस्टम है।
·         1994 .: नेटस्केप कम्युनिकेशन और 1995 में माइक्रोसॉफ्ट ने अपने-अपने ब्राउज़र बाजार में उतारे। इन ब्राउज़रों से प्रयोगकर्ताओं के लिए इंटरनेट का प्रयोग अत्यन्त आसान हो गया।

·         1995 .: प्रारंभिक व्यावसायिक साइट्स को इंटरनेट पर लाँच किया गया। -मेल के द्वारा मास मार्केटिंग कैम्पेन चलाए जाने लगे।
·         1996 .: 1996 तक आते आते दुनिया भर में इंटरनेट को काफी लोकप्रियता हासिल हो गई। इंटरनेट प्रयोगकर्ताओं की संख्या 4.5 करोड़ पहुँची।
·         1999 .: -कॉमर्स की अवधारणा अत्यन्त तेजी से फैलीजिससे इंटरनेट के द्वारा खरीद-फरोख्त लोकप्रिय हो गई।
·         2003 .: न्यूजीलैण्ड में 'नियूइ' (NIUE) ने इंटरनेट में देशव्यापी 'वायरलेस एक्सेसप्रणाली का प्रयोग आरंभ किया (इसमें ङ्खद्ब-स्नद्ब तकनीक का प्रयोग किया जाता है)

प्रिंट मीडिया - भाषा में प्रयोग


प्रिंट मीडिया में जैसे-जैसे लोकेलाइजेशन बढ़ा है उसी तरह से भाषा में प्रयोग अच्छे से किये जा रहे हैं। वो लोग एक अच्छे ढंग से खबरों को पेश कर रहे हैं। टीवी ने भाषा में प्रयोग जरूर किये लेकिन उन्होंने जो प्रयोग किये इससे भाषा के लिए चिंता पैदा कर दी है।  जिस प्रकार से प्रिंट मीडिया ने भाषा की गरिमा को बचाया है उसी प्रकार बाकी मीडिया को इसका ख्याल रखना चाहिए। जो चीज आज तक प्रिंट मीडिया बताता रहा है। उसे अब वेब बता रहा है। और वेब बहुत जरूरी हो गया है। हम लोग बहुत ही ज्यादा तकनिकी हो गये हैं। जिससे डिजिटल का भविष्य बहुत अच्छा है। और यह और ज्यादा विस्तार करेगा।
अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जेफरसन ने कहा था, ''यदि मुझे कभी यह निश्चित करने के लिए कहा गया कि अखबार और सरकार में से किसी एक को चुनना है तो मैं बिना हिचक यही कहूंगा कि सरकार चाहे हो, लेकिन अखबारों का अस्तित्व अवश्य रहे।" एक समय था जब अखबार को समाज का दर्पण कहा जाता था समाज में जागरुकता लाने में अखबारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह भूमिका किसी एक देश अथवा क्षेत्र तक सीमित नहीं है, विश्व के तमाम प्रगतिशील विचारों वाले देशों में समाचार पत्रों की महती भूमिका से कोई इंकार नहीं कर सकता। मीडिया में और विशेष तौर पर प्रिंट मीडिया में जनमत बनाने की अद्भुत शक्ति होती है। नीति निर्धारण में जनता की राय जानने में और नीति निर्धारकों तक जनता की बात पहुंचाने में समाचार पत्र एक सेतु की तरह काम करते हैं। समाज पर समाचार पत्रों का प्रभाव जानने के लिए हमें एक दृष्टि अपने इतिहास पर डालनी चाहिए। लोकमान्य तिलक, महात्मा गाँधी और पं. नेहरू जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने अखबारों को अपनी लड़ाई का एक महत्वपूर्ण हथियार बनाया। आजादी के संघर्ष में भारतीय समाज को एकजुट करने में समाचार पत्रों की विशेष भूमिका थी। यह भूमिका इतनी प्रभावशाली हो गई थी कि अंग्रेजों ने प्रेस के दमन के लिए हरसंभव कदम उठाए। स्वतंत्रता के पश्चात लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा और वकालत करने में अखबार अग्रणी रहे। आज मीडिया अखबारों तक सीमित नहीं है परंतु इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और वेब मीडिया की तुलना में प्रिंट मीडिया की पहुंच और विश्वसनीयता कहीं अधिक है। प्रिंट मीडिया का महत्व इस बात से और बढ़ जाता है कि आप छपी हुई बातों को संदर्भ के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं और उनका अध्ययन भी कर सकते हैं। ऐसे में प्रिंट मीडिया की जिम्मेदारी भी निश्चित रूप से बढ़ जाती है। मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी के शेर से आप में से ज्यादातर वाकिफ होंगे कि:- खेचों कमान, तलवार निकालो। "गर तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो। अब मानवाधिकार की बात करें तो संविधान में उल्लेखित मौलिक अधिकार मोटे तौर पर मानवाधिकार ही हैं। हर व्यक्ति को स्वतंत्रता सम्मान के साथ जीने का अधिकार है चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, वर्ग का क्यों हो। लोकतंत्र में मानवाधिकार का दायरा अत्यंत विशाल है। राजनैतिक स्वतंत्रता, शिक्षा का अधिकार, महिलाओं के अधिकार, बाल अधिकार, निशक्तों के अधिकार, आदिम जातियों के अधिकार, दलितों के अधिकार जैसी अनेक श्रेणियां मानवाधिकार में समाहित हैं। यदि गौर किया जाए तो कुछ ऐसी ही विषयवस्तु पत्रकारिता की भी है। पत्रकारों के लिए भी मोटे तौर पर ये संवेदनशील मुद्दे ही उनकी रिपोर्ट का स्रोत बनते हैं। परन्तु मानवधिकार मुख्यत: एक राजनैतिक अवधारणा है, जिसका विकास और निर्वहन लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के अंतर्गत ही संभव है। व्यक्ति की राजनैतिक स्वतंत्रता, राजसत्ता के खिलाफ स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार ही मानवाधिकारो का मूल है। भारत जैसे देश में जहां गरीबी अज्ञानता ने समाज के एक बड़े हिस्से को अंधकार में रखा है, वहां मानवाधिकारों के बारे में जागरुकता जगाने में, उनकी रक्षा में तथा आम आदमी को सचेत करने में अखबार समाज की मदद करते हैं। हम स्वयं को लोकतंत्र कहते हैं तो हमें यह भी जान लेना चाहिए कि कोई भी राष्ट्र तब तक पूर्ण रूप से लोकतांत्रिक नहीं हो सकता जब तक उसके नागरिकों को अपने अधिकारों को जीवन में इस्तेमाल करने का संपूर्ण मौका मिले। मानवाधिकारों का हनन मानवता के लिए खतरा है। आम आदमी को उसके अधिकारों के बारे में शिक्षित करने में मीडिया निश्चित रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सूचना के प्रचार-प्रसार से लेकर आम राय बनाने तक में मीडिया अपने कर्तव्य का भली-भांति वहन करता है। एक विकासशील देश में जहां मानवाधिकारों का दायरा व्यापक है, वहां मीडिया के सहयोग के बिना सामाजिक बोध जगाना लगभग असंभव है। भारत में पूर्णत: स्वतंत्र प्रेस की परिकल्पना आरंभ से ही रही है। 1910 के प्रेस एक्ट के खिलाफ बोलते हुए पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि- “I would rather have a completely free press with all the dangers involved in the wrong use of the freedom than a suppressed or regulated press.” उन्होंने यह बात 1916 में कही थी। स्वतंत्रता पश्चात् प्रेस की स्वतंत्रता को समझते हुए संविधान में इसका प्रावधान किया गया। यहां यह उल्लेखित करना आवश्यक होगा कि प्रेस की स्वतंत्रता सिर्फ उसके मालिक, संपादक और पत्रकारों की निजी व्यवसायिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं होती बल्कि यह उसके पाठकों की सूचना पाने की स्वतंत्रता और समाज को जागरुक होने के अधिकार को भी अपने में समाहित करती है। प्रेस का सबसे बड़ा कर्तव्य समाज को जागरुक करना होता है। अपने अधिकारों की जानकारी ज्यादा से ज्यादा लोगों तक होने से मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सही कदम उठाए जा सकते हैं। आखिरकार जिन्हें अपने अधिकारों की जानकारी होगी , ऐसे व्यक्ति ही उनकी मांग कर सकते हैं तथा सरकार अधिकारियों को अपने दूसरों के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए मजबूर कर सकते हैं। इस विशाल देश में मानवाधिकार हनन के अधिकांश मामले ग्रामीण क्षेत्रों में होते हंै, जहां की जनता शहरी जनता की बनिस्बत कम जागरुक होती है। अनेक गैर सरकारी संगठन इन क्षेत्रों में कार्य करते हैं। उनके लिए भी मीडिया के सहयोग के बिना कार्य करना संभव नहीं है। मीडिया समाज की आवाज शासन तक पहुंचाने में उसका प्रतिनिधि बनता है। अब सवाल यह उठता है कि वाकई मीडिया अथवा प्रेस जनता की आवाज हैं। आखिर वे जनता किसे मानते हैं? उनके लिए शोषितों की आवाज उठाना ज्यादा महत्वपूर्ण है अथवा क्रिकेट की रिर्पोटिंग करना, आम आदमी के मुद्दे बड़े हैं अथवा किसी सेलिब्रिटी की निजी जिंदगी ? आज की पत्रकारिता इस दौर से गुजर रही है जब उसकी प्रतिबद्धता पर प्रश्रचिन्ह लग रहे हैं। समय के साथ मीडिया के स्वरूप और मिशन में काफी परिवर्तन हुआ है। अब गंभीर मुद्दों के लिए मीडिया में जगह घटी है। अखबार का मुखपृष्ठ अमूमन राजनेताओं की बयानबाजी, घोटालों, क्रिकेट मैचों अथवा बाजार के उतार-चढ़ाव को ही मुख्य रूप से स्थान देता है। गंभीर से गंभीर मुद्दे अंदर के पृष्ठों पर लिए जाते हैं तथा कई बार तो सिरे से गायब रहते हैं समाचारों के रूप में कई समस्याएं जगह तो पा लेती हैं परंतु उन पर गंभीर विमर्श के लिए पृष्ठों की कमी हो जाती है। पिछले कुछ वर्षों में हम देख रहे हैं कि मानवाधिकारों को लेकर मीडिया की भूमिका लगभग तटस्थ है। हम इरोम शर्मिला और सलवा जुडूम के उदाहरण देख सकते हैं। ये दोनों प्रकरण मानवाधिकारों के हनन के बड़े उदाहरण है, लेकिन मीडिया में इन प्रकरणों पर गंभीर विमर्श अत्यंत कम हुआ है। राजनैतिक स्वतंत्रता के हनन के मुद्दे पर मीडिया अक्सर चुप्पी साध लेता है। मीडिया की तटस्थता स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अत्यंत घातक है। लोकतंत्र में राजद्रोह की कोई अवधारणा नहीं है और होनी चाहिए। अपनी बात कहने का, अपना पक्ष रखने का अधिकार हर व्यक्ति के पास है, चाहे वह अपराधी ही क्यों ना हो। राजसत्ता का अहंकार व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को यदि राजद्रोह मानने लगे तो लोकतंत्र का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा मीडिया को अपनी तटस्थता छोड़कर मानवधिकारों के हनन को रोकने की दिशा में सार्थक कार्य करना होगा भारत तथा विश्व में मानवाधिकार हनन के मुद्दों पर प्रिंट मीडिया की क्या भूमिका रही है, इसके कुछ और उदाहरण आपके समक्ष रखना चाहती हंू। पहले बात करते हैं दक्षिण अफ्रीका की जहां रंगभेद की नीति ने वर्षों तक नागरिकों के मानवाधिकारों का हनन दमन किया। दक्षिण अफ्रीका में अफ्रीकन इंग्लिश अखबारों की इस मुद्दों पर अलग -अलग भूमिका रही। एक ओर जहां अफ्रीकन अखबारों में इसे सही ठहराते हुए हमेशा शासन के पक्ष को मजबूत किया, वहीं दूसरी ओर इंग्लिश प्रेस ने शासन की आलोचना करते हुए भी राजनीतिक आंदोलन को आपराधिक आंदोलन के रूप में प्रस्तुत किया। परंतु जैसे-जैसे रंगभेद के खिलाफ जनता का आंदोलन मजबूत हुआ, इंग्लिश प्रेस की नीति भी बदली। इस पूरे आंदोलन के दौरान रिर्पोटिंग की भाषा ने चाहे वह अफ्रीकन अखबार रहे हों अथवा इंग्लिश वस्तुस्थिति को तोड़-मरोड़ कर पेश किया। कुल मिलाकर रंगभेद के खिलाफ लडऩे में प्रिंट मीडिया मुख्यत: शासन के पक्ष में रहा और यह सबक मिला कि विकासशील समाज के लिए बंधनमुक्त, सेंसरमुक्त मीडिया कितना आवश्यक है। हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी मानवाधिकार हनन के सैकड़ों मामले होते हैं। वहां का प्रिंट मीडिया मुख्यत: उर्दू अंग्रेजी में है। अंग्रेजी अखबारों के साधन पहुंच उर्दू अखबारों की तुलना में कहीं अधिक है। अत: रिर्पोटिंग में भी अंतर होना स्वाभाविक है। इसके अलावा अंग्रेजी अखबारों के रिर्पोटर एक निश्चित परिभाषित बीट के लिए कार्य करते हंै। वहीं उर्दू रिर्पोटरों को अमूमन एक साथ कई बीट के लिए रिर्पोटिंग करनी होती है। ऐसे में मानवाधिकार हनन मामलों की जो समझ और ट्रेनिंग उन्हें होनी चाहिए, उसकी कमी रिर्पोटिंग में नजर आती है। पाकिस्तान में सामाजिक, राजनैतिक धार्मिक प्रतिबंधों के चलते भी इन मामलों को जिस तरह उठाना चाहिए, वह नहीं हो पाता। इन चुनौतियों के बावजूद पाकिस्तान के प्रिंट मीडिया ने राजसत्ता द्वारा ना"रिकों के मानव अधिकार हनन के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की और अनेक बार राजसत्ता के कोप का शिकार बने। अनेक पत्रकारों की "िरफ्तारी हुई, कई अखबार बंद कर दिए गए और कईयों को अपनी जान भी गवानी पड़ी। भारत में मानवाधिकार हनन का पहला बड़ा मुद्दा जो मीडिया में आया था, वह था भागलपुर जेल में कैदियों की आंखें फोडऩे का मामला। इसके बाद मुंबई की आर्थर रोड जेल में महिला कैदियों के साथ दुव्र्यवहार उनके शोषण की खबर ने सरकार को पूरे महाराष्टï में जेलों की स्थिति की जांच करने पर मजबूर कर दिया। इस तरह की रिपोर्टिंग ने प्रिंट मीडिया को मानवाधिकारों की रक्षा में बड़ा साथी बना दिया था। यह अलग बात है कि चाहे वह गुजरात के दंगों का सच हो, कश्मीर में बेगुनाहों की मौत का सच हो, उत्तर प्रदेश में भूमि अधिग्रहण का सच हो अथवा विनायक सेन और नक्सलवाद का सच हो, प्रिंट मीडिया ने इन मुद्दों को अपनी प्रतिबद्धता सामथ्र्यानुसार ही स्थान दिया है। हालांकि रोजाना जीवन के तो अनेक मानवाधिकार हनन मामले प्रिंट मीडिया के बगैर आम जनता तक सच्चाई से पहुंच नहीं पाते। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ब्रेकिंग न्यूज की होड़ में यह अनुमान लगाना कठिन हो जाता है कि सच्चाई क्या है। आज प्रिंट मीडिया को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से तगड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने स्वरूप और सामथ्र्य की वजह से दर्शकों को 24 घंटे उपलब्ध है। टीआरपी की चाह में टीवी न्यूज चैनल सिर्फ गंभीर विमर्शों तक सीमित नहीं हैं अपितु वे फिल्मी चकाचौंध, सास-बहू के किस्सों, क्रिकेट की दुनिया के अलावा अंधविश्वासों तक को अपने प्रोग्राम में काफी स्थान देते हैं। ऐसे में प्रिंट मीडिया का भी स्वरूप बदलने लगा है और अखबारों के पन्ने भी झकझोरने के बजाय गुदगुदाने का काम करने लगे हैं। मीडिया मालिकों की पूंजीवादी सोच के अलावा पत्रकारों की तैयारी भी एक बड़ा मसला है। एक समय था जब पत्रकार होना सम्मानजनक माना जाता था। बड़े-बड़े साहित्यकारों ने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अपनी लेखनी के झंडे गाड़े। प्रेमचंद, माखनलाल चतुर्वेदी, महादेवी वर्मा से लेकर अज्ञेय, धर्मवीर भारती, कमलेश्वर आदि दिग्गज साहित्यकारों ने एक पत्रकार के रूप में भी सामाजिक बोध जगाने के अपने दायित्व का निर्वहन किया और राजनैतिक पत्रकारिता से ज्यादा रुचि मानवीय पत्रकारिता में दिखाई। कहने का तात्पर्य यह है कि उस दौर के पत्रकारों में विषय की, समाज की गहरी समझ थी, उसे लेखन रूप में प्रस्तुत करने के लिए भाषा और भावना थी तथा सामाजिक प्रतिबद्धता थी। आज ये गुण कहीं खो से गए हैं। निजी हितों का दबाव इतना बढ़ गया है कि पत्रकारों की प्रतिबद्धता पल-पल बदलती रहती है। अपने कार्य के प्रति समर्पण में भी कमी नजर आती है। कहीं वे घटनास्थल तक पहुंच नहीं बना पाते तो कई बार उन्हें घटनाओं को सही परिप्रेक्ष्य में समझना नहीं आता तो कई बार भाषा के गलत इस्तेमाल से समाचार का भाव ही बदल जाता है। इसके लिए आवश्यक है कि पत्रकारों को आरंभ से ही मानवाधिकार मामलों की भी ट्रेनिंग दी जाए। उनके विषयों में भारतीय संविधान में उल्लेखित मौलिक अधिकारों की पढ़ाई, कानून की समझ इत्यादि शामिल किए जाएं तथा कार्यक्षेत्र में भी उन्हें पुलिस बीट, लीगल बीट आदि पर भेजने से पहले कुछ ट्रेनिंग दी जाए। आधी अधूरी तैयारी सतही समझ से मुद्दे कमजोर पड़ जाते हैं और उनके समाधान की राह कठिन हो जाती है। यदि मीडिया को समाज को राह दिखानी है तो स्वयं उसे सही राह पर चलना होगा एक सफल लोकतंत्र वही होता है जहां जनता जागरुक होती है। अत: सुशासन के लिए मीडिया का कर्तव्य बनता है कि वह लोगों का पथ प्रदर्शन करे। उन्हें सच्चाई का आइना दिखाए और सरकार को जनता के प्रति जवाबदेह बनाए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जो हमारा मूल मानवाधिकार है, वह सिर्फ भाषण देने तक सीमित नहीं है बल्कि उसका उद्देश्य समाज में उचित न्याय का साम्राज्य स्थापित करना होना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि हर कीमत पर हर व्यक्ति के मानवाधिकारों की रक्षा की जाए और उनका सम्मान किया जाए। मानवाधिकारों की रक्षा के लिए सामाजिक बोध जगाने में प्रिंट मीडिया की स्वतंत्रता इसी से सार्थक होगी



हिंदी पत्रकारिता की भाषा ---
'प्रिंट मीडिया' को हम 'मुद्रित माध्यम' क्यों नहीं कहते? इस प्रश्न के उत्तर में ही जन माध्यमों में हिंदी भाषा के स्वरूप की पहचान छिपी हुई है। उसकी सामर्थ्य भी और उसकी दुर्बलता भी।
जब कलकत्ता से हिंदी साप्ताहिक 'रविवार' शुरू हो रहा था, उस समय मणि मधुकर हमारे साथ थे। कार्यवाहक संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह मीडिया पर एक स्तंभ शुरू करने जा रहे थे। प्रश्न यह था कि स्तंभ का नाम क्या रखा जाए। मणि मधुकर साहित्यिक व्यक्ति थे। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका था। उनसे पूछा गया, तो वे सोच कर बोले - संप्रेषण। सुरेंद्र जी ने बताया कि उन्हें 'माध्यम' ज्यादा अच्छा लग रहा है। अंत में स्तंभ का शार्षक यही तय हुआ। लेकिन सुरेंद्र प्रताप की विनोद वृत्ति अद्भुत थी। उन्होंने हँसते हुए मणि मधुकर से कहा, 'दरअसल, हम दोनों ही अंग्रेजी से अनुवाद कर रहे थे। आपने 'कम्युनिकेशन' का अनुवाद संप्रेषण किया और मैंने मीडियम या मीडिया का अनुवाद माध्यम किया।'
उस समय संप्रेषण और माध्यम एक ही स्थिति का वर्णन करनेवाले शब्द लगते थे। आज वह स्थिति नहीं है। मीडिया के लिए आज कोई संप्रेषण शब्द सोच भी नहीं सकता। यह शब्द अब कम्युनिकेशन के लिए रूढ़ हो चुका है। मास कम्युनिकेशन को जन संचार कहा जाता है, मास मीडिया को जन माध्यम। इस प्रसंग में जो बात ध्यान देने योग्य है, वह यह है कि 1977 से ही हिंदी पत्रकारिता पर अंग्रेजी की छाया दिखाई पड़ने लगी थी। कवर स्टोरी को आवरण कथा या आमुख कथा कहा जाता था। लेकिन आज कवर स्टोरी का बोलबाला है। जाहिर है कि अंग्रेजी अब अनुवाद में नहीं, सीधे रही है और बता रही है कि हम अनुवाद की संस्कृति से निकल कर सीधे अंग्रेजी के चंगुल में है। किसी टेलीविजन चैनल की भाषा कितनी जनोन्मुख है, इसका फैसला इस बात से किया जाता है कि उस चैनल पर अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कितना प्रतिशत होता है। ऐसे माहौल में अगर दूरदर्शन की भाषा पिछड़ी हुई, संस्कृतनिष्ठ और प्रतिक्रियावादी लगती है, तो इसमें हैरत की बात क्या है।
आजकल अखबारों में मीडिया की चर्चा बहुत ज्यादा होती है, हालाँकि ज्यादातर इसका मतलब टीवी चैनलों से लगाया जाता है। अखबारों में अखबारों की चर्चा लगभग बंद है (पहले भी ज्यादा कहाँ होती थी?), क्योंकि प्रायः सभी अखबार एक ही राह पर चल रहे हैं और इस राह पर आत्मपरीक्षण के लिए इजाजत नहीं है। बहरहाल, इस तरह के स्तंभों के लिए माध्यम शब्द नहीं चलता, मीडिया का शोर जरूर है। इस बीच अखबारों के लिए प्रिंट मीडिया शब्द चल पड़ा है। चूँकि मीडिया शब्द पहले से चल रहा था, इसलिए उसमें प्रिंट जोड़ देना आसान लगा। मुद्रित माध्यम या मुद्रित मीडिया लिखना अच्छा नहीं लगता -- इस तरह के संस्कृत मूल के या खिचड़ी शब्दों से हम अब बचने लगे हैं (क्योंकि यह पिछड़ेपन का प्रतीक है) और सीधे अंग्रेजी पर्यायों का इस्तेमाल करते हैं। 'रविवार' के समय भी मीडिया के लिए हिंदी का कोई मौलिक शब्द खोजने का श्रम नहीं किया गया था, लेकिन इतनी सभ्यता बची हुई थी कि अंग्रेजी शब्द से नहीं, उसके अनुवाद से काम चलाया गया।
स्पष्ट है कि जो लोग हिंदी के उच्च प्रसार संख्या वाले दैनिक पत्रों में काम करते हैं, वे हिंदी की दुकान लगभग बंद कर चुके हैं और अंग्रेजी के हाथों लगभग बिक चुके हैं। लेकिन इसमें उनका कसूर नहीं है। जब मालिक लोग हिंदी पत्रकारिता का कायाकल्प कर रहे थे (वास्तव में यह सिर्फ काया का नहीं, आत्मा का भी बदलाव था), उस वक्त काम कर रहे हिंदी पत्रकारों ने अगर उनके साथ आज्ञाकारी सहयोग नहीं किया होता, तो उनमें से प्रत्येक की नौकरी खतरे में थी। आज भी कुछ घर-उजाड़ू या नए फैशन के स्वर्णपाश में फँसे हुए पत्रकारों को छोड़ हिंदी का कोई भी पत्रकार अंग्रेजी-पीड़ित हिंदी अपने मन से नहीं लिखता। उसे यह अपने ऊपर और अपने पाठकों पर सांस्कृतिक अत्याचार लगता है। वह झुँझलाता है, क्रुद्ध होता है, हँसी उड़ाता है, कभी-कभी मिल-जुल कर कोई अभियान चलाने का सामूहिक निश्चय करता है, लेकिन आखिर में वही ढाक के तीन पात सामने आते हैं और वह अपना काम दी हुई भाषा में संपन्न कर उदास मन से घर लौट जाता है। उसके सामने एक बार फिर यह तथ्य उजागर होता है कि जिस अखबार में वह काम कर रहा है, वह अखबार उसका नहीं है, कि जिस व्यक्ति ने पूँजी निवेश किया है, वही तय करेगा कि क्या छपेगा, किस भाषा में छपेगा और किन तसवीरों के साथ छपेगा। परियोजना ऊपर से मिलेगी, पत्रकार को सिर्फ 'इंप्लिमेंट' करना है।
ऐसा क्यों हुआ? किस प्रक्रिया में हुआ? यहाँ मैं एक और संस्मरण की शरण लूँगा। नवभारत टाइम्स के दिल्ली संस्करण से विद्यानिवास मिश्र विदा हुए ही थे। वे अंग्रेजी के भी विद्वान थे, पर हिंदी में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग बिलकुल नहीं करते थे। विष्णु खरे भी जा चुके थे। उनकी भाषा अद्भुत है। उन्हें भी हिंदी लिखते समय अंग्रेजी का प्रयोग आम तौर पर बिलकुल पसंद नहीं। स्थानीय संपादक का पद सूर्यकांत बाली नाम के एक सज्जन सँभाल रहे थे। अखबार के मालिक समीर जैन को पत्रकारिता तथा अन्य विषयों पर व्याख्यान देने का शौक है। उस दिनों भी था। वे राजेंद्र माथुर को भी उपदेश देते रहते थे, सुरेंद्र प्रताप सिंह से बदलते हुए समय की चर्चा करते थे, विष्णु खरे को बताते थे कि पत्रकारिता क्या है और हम लोगों को भी कभी-कभी अपने नवाचारी विचारों से उपकृत कर देते थे। सूर्यकांत बाली की विशेषता यह थी कि वे समीर जैन की हर स्थापना से तुरंत सहमत हो जाते थे, बल्कि उससे कुछ आगे भी बढ़ जाते थे। आडवाणी ने इमरजेंसी में पत्रकारों के आचरण पर टिप्पणी करते हुए ठीक ही कहा था कि उन्हें झुकने को कहा गया था, पर वे रेंगने लगे। मैं उस समय के स्थानीय संपादक को रेंगने से कुछ ज्यादा करते हुए देखता था और अपने दिन गिनता था।
सूर्यकांत बाली संपादकीय बैठकों में हिंदी भाषा के नए दर्शन के बारे में समीर जैन के विचार इस तरह प्रगट करते जैसे वे उनके अपने विचार हों। समीर जैन की चिंता यह थी कि नवभारत टाइम्स युवा पीढ़ी तक कैसे पहुँचे। नई पीढ़ी की रुचियाँ पुरानी और मझली पीढ़ियों से भिन्न थीं। टीवी और सिनेमा उसका बाइबिल है। सुंदरता, सफलता और यौनिकता की चर्चा में उसे शास्त्रीय आनंद आता है। फिल्मी अभिनेताओं-अभिनेत्रियों की रंगीन और अर्ध या पूर्ण अश्लील तसवीरों में उसकी आत्मा बसती है। समीर जैन नवभारत टाइम्स को गंभीर लोगों का अखबार बनाए रखना नहीं चाहते थे। वे अकसर यह लतीफा सुनाते थे कि जब बहादुरशाह जफर मार्ग से, जहाँ दिल्ली के नवभारत टाइम्स का दफ्तर है, किसी बूढ़े की लाश गुजरती है, तो मुझे लगता है कि नवभारत टाइम्स का एक और पाठक चस बसा। समीर की फिक्र यह थी कि नए पाठकों की तलाश में किधर मुड़ें। इस खोज में भारत के शहरी युवा वर्ग के इसी हिस्से पर उनकी नजर पड़ी। उन्होंने हिंदी के संपादकों से कहा कि हिंदी में अंग्रेजी मिलाओ, वैसी पत्रकारिता करो जैसी नया टाइम्स ऑफ इंडिया कर रहा है, नहीं तो तुम्हारी नाव डूबने ही वाली है। सरकुलेशन नहीं बढ़ेगा, तो एडवर्टीजमेंट नहीं बढ़ेगा और रेवेन्यू कम होगा और अंत में 'वी विल बी फोर्स्ड टु क्लोज डाउन दिस पेपर।' इस भविष्यवाणी की गंभीरता को बाली ने समझा और हमें बताने लगे कि हमें विशेषज्ञ की जगह एक्सपर्ट, समाधान की जगह सॉल्यूशन, नीति की जगह पॉलिसी, उदारीकरण की जगह लिबराइजेशन लिखना चाहिए। एक दिन हमने उनके ये विचार 'पाठकों के पत्र' स्तंभ में एक छोटे-से लेख के रूप में पढ़े। उस लेख को हिंदी पत्रकारिता के नए इतिहास में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज का स्थान मिलना चाहिए।
कोई चाहे तो इसे हिंदी की सामर्थ्य भी बता सकता है। हिंदी अपने आदिकाल से ही संघर्ष कर रही है। उसे उसका प्राप्य अभी तक नहीं मिल सका है। अपने को बचाने की खातिर हिंदी ने कई तरह के समझौते भी किए। अवधी, ब्रजभाषा, भोजपुरी, उर्दू आदि के साथ अच्छे रिश्ते बनाए। किसी का तिरस्कार नहीं किया। यहाँ तक कि उसने अंग्रेजी से भी दोस्ती का हाथ मिलाया। यह हिंदी की शक्ति है, जो शक्ति किसी भी जिंदा और जिंदादिल भाषा की होती है। इस प्रक्रिया में कर लिया। हिंदी हर पराई चीज का हिंदीकरण कर लेती है। अतः उसने अंग्रेजी शब्दों का भी हिंदीकरण कर लिया। आजादी के बाद भी कुछ वर्षों तक हिंदी अंग्रेजी शब्दों के हिंदी प्रतिशब्द बनाती रही। बजट, टिकट, मोटर और बैंक जैसे शब्द सीधे ले लिए गए, क्योंकि ये हिंदी के प्रवाह में घुल-मिल जा रहे थे और इनका अनुवाद करने के प्रयास में 'लौहपथगामिनी' जैसे असंभव शब्द ही हाथ आते थे। आज भी पासपोर्ट को पारपत्र कहना जमता नहीं है, हालाँकि इस शब्द में जमने की पूरी संभावना है। लेकिन 1980-90 के दौर में जनसाधारण के बीच हिंदी का प्रयोग करनेवालों में सांस्कृतिक थकावट गई और इसी के साथ उनकी शब्द निर्माण की क्षमता भी कम होती गई। उन्हीं दिनों हिंदी का स्परूप थोड़ा-थोड़ा बदलने लगा था, जब संडे मेल, संडे ऑब्जर्वर जैसे अंग्रेजी नामोंवाले पत्र हिंदी में निकलने लगे। यह प्रवृत्ति 70 के दशक में मौजूद होती, तो हिंदी में रविवार नहीं, संडे ही निकलता या फिर आउटलुक के हिंदी संस्करण में साप्ताहिक लगाने की जरूरत नहीं होती, सीधे आउटलुक ही निकलता, जैसे इंडिया टुडे कई भाषाओं में एक ही नाम से निकलता है। 90 के दशक में जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया ने भारत की अंग्रेजी पत्रकारिता का चेहरा बदल डाला, उसे आत्मा-विहीन कर दिया, वैसे ही नए नवभारत टाइम्स ने हिंदी पत्रकारिता में एक ऐसी बाढ़ पैदा कर दी, जिसमें बहुत-से मूल्य और प्रतिमान डूब गए। लेकिन नवभारत टाइम्स का यह प्रयोग आर्थिक दृष्टि से सफल रहा और अन्य अखबारों के लिए मॉडल बन गया। कुछ हिंदी पत्रों में तो अंग्रेजी के स्वतंत्र पन्ने भी छपने लगे।
भाषा संस्कृति का वाहक होती है। प्रत्येक सांस्कृतिक परियोजना अपने लिए एक नई भाषा गढ़ती है। नक्सलवादियों की भाषा वह नहीं है जिसका इस्तेमाल गांधी और जवाहरलाल करते थे। आज के विज्ञापनों की भाषा भी वह नहीं है जो 80 के दशक तक हुआ करती थी। यह एक नई संस्कृति है जिसके पहियों पर आज की पत्रकारिता चल रही है। इसे मुख्य रूप से सुखवाद की संस्कृति कह सकते हैं, जिसमें किसी वैचारिक वाद के लिए जगह नहीं है। इस संस्कृति का केंद्रीय सूत्र रघुवीर सहाय बहुत पहले बता चुके थे - उत्तम जीवन दास विचार। जैसे दिल्ली के प्रगति मैदान में उत्तम जीवन (गुड लिविंग) की प्रदर्शनियाँ लगती हैं, वैसे ही आज हर अखबार उत्तम जीवन को अपने ढंग से परिभाषित करने लगा है। अपने-अपने ढंग से नहीं, अपने ढंग से, जिसका नतीजा यह हुआ है कि सभी अखबार एक जैसे ही नजर आते हैं - सभी में एक जैसे रंग, सभी में एक जैसी सामग्री, विचार-विमर्श का घोर अभाव या नकली तथा सतही चिंताएँ तथा जीवन में सफलता पाने के लिए एक जैसा शिक्षण अखबार आधुनिकतम जीवन के विश्वविद्यालय बन चुके हैं और पाठक सोचने-समझनेवाला प्राणी नहीं, बल्कि वह विह्वर, जिसमें कुछ भी उड़ेला जा सकता है - बैरंग लौटने की आशंका से निश्चिंत।
इसका असर हिंदी की जानकारी के स्तर पर भी पड़ा है। टीवी चैनलों में उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है जो शुद्ध हिंदी के प्रति सरोकार रखते हैं। प्रथमतः तो ऐसे व्यक्तियों को लिया ही नहीं जाता। ले लेने के बाद उनसे माँग की जाती है कि वे ऐसी हिंदी लिखें और बोलें जो 'ऑडिएंस' की समझ में आए। इस हिंदी का शुद्ध या टकसाली होना जरूरी नहीं है। यह शिकायत कम पढ़े-लिखे लोग भी करने लगे हैं कि टीवी के परदे पर जो हिंदी आती है, वह अकसर गलत होती है। सच तो यह है कि अनेक हिंदी समाचार चैनलों के प्रमुख ऐसे महानुभाव हैं जिन्हें हिंदी (या, कोई भी भाषा) आती ही नहीं और यह उनके लिए शर्म की नहीं, गर्वित होने की बात है। वे मानते हैं कि टीवी की भाषा की उन्हें अच्छी जानकारी है और इस भाषा का उन भाषाओं से कोई संबंध नहीं है जो स्कूल-कॉलेजों में, भले ही गलत-सलत, पढ़ाई जाती हैं। यही स्थिति नीचे के पत्रकारों की है। वे अखबार या टीवी की भाषा से ज्यादा चापलूसी की भाषा को समझते हैं। चूँकि अच्छी हिंदी की माँग नहीं है और समाचार या मनोरंजन संस्थानों में उसकी कद्र भी नहीं है, इसलिए हिंदी सीखने की कोई प्रेरणा भी नहीं है। हिंदी एक ऐसी अभागी भाषा है जिसे जानते हुए भी हिंदी की पत्रकारिता की जा सकती है।
प्रिंट मीडिया की ट्रेजेडी यह है कि टेलीविजन से प्रतिद्वंद्विता में उसने अपने लिए कोई नई या अलग राह नहीं निकाली, बल्कि वह टेलीविजन का अनुकरण करने में लग गया। कहने की जरूरत नहीं कि जब हिंदी क्षेत्र में टेलीविजन का प्रसार बढ़ रहा था, तब तक हिंदी पत्रों की आत्मा आखिरी साँस लेने लग गई थी। पुनर्जन्म के लिए उनके पास एक ही मॉडल था, टेलीविजन की पत्रकारिता। यह मालिक की पत्रकारिता थी। संपादक रह नहीं गए थे जो कुछ सोच-विचार करते और प्रिंट को इलेक्ट्रॉनिक का भतीजा बनने से बचा पाते। नतीजा यह हुआ कि हिंदी के ज्यादातर अखबार टेलीविजन, जो खुद ही फूहड़पन का भारतीय नमूना है, का फूहड़तर अनुकरण बन गए। इसका असर प्रिंट मीडिया की भाषा पर भी पड़ा। हिंदी का टेलीविजन जो काम कर रहा है, वह एक रुग्ण और विकार-ग्रस्त भाषा में ही हो सकता है। अशुद्ध आत्माएँ अपने को शुद्ध माध्यमों से प्रगट नहीं कर सकतीं। सो हिंदी पत्रों की भाषा भी भ्रष्ट होने लगी। एक समय जिस हिंदी पत्रकारिता ने राष्ट्रपति, संसद, श्री, श्रीमती जैसे दर्जनों शब्द गढ़े थे, जो सब की जुबान पर चढ़ गए, उसी हिंदी के पत्रकार अब प्रेसिडेंट, प्राइम मिनिस्टर जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने लगे। इसके साथ ही यह भी हुआ कि हिंदी पत्रों में काम करने के लिए हिंदी जानना आवश्यक नहीं रह गया। पहले जो हिंदी का पत्रकार बनना चाहता था, वह कुछ साहित्यिक संस्कार ले कर आता था। वास्तव में, साहित्य और पत्रकारिता दोनों एक ही काम को भिन्न-भिन्न ढंग से करते हैं, फिर भी साहित्य चौबीस कैरेट का सोना होता है। साहित्य की उस ऊँचाई को सम्मान देने के लिए पहले हिंदी अखबारों में कुछ साहित्य भी छपा करता था। कहीं-कहीं साहित्य संपादक भी होते थे। लेकिन नए वातावरण में साहित्य का ज्ञान एक अवगुण बन गया। साहित्यकारों को एक-एक कर अखबारों से बाहर किया जाने लगा। हिंदी एक चलताऊ चीज हो गई -- गरीब की जोरू, जिसके साथ कोई भी कभी भी छेड़छाड़ कर सकता है। यही कारण है कि अब हिंदी अखबारों में अच्छी भाषा पढ़ने का आनंद दुर्लभ तो हो ही गया है, उनसे शुद्ध लिखी हुई हिंदी की माँग करना भी नाजायज लगता है। जिनका हिंदी से कोई लगाव नहीं है, जिनकी हिंदी के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं है, जो हिंदी की किताबें नहीं पढ़ते (सच तो यह है कि वे कोई भी किताब नहीं पढ़ते), उनसे यह अपेक्षा करना कि वे हिंदी को सावधानी से बरतेंगे, उनके साथ अन्याय है, जैसे गधे से यह माँग करना ठीक नहीं है कि वह घोड़े की रफ्तार से चल कर दिखाए।
आगे क्या होगा? क्या हिंदी बच भी पाएगी? जिन कमियों और अज्ञानों के साथ आज हिंदी का व्यवहार हो रहा है, वैसी हिंदी बच भी गई तो क्या? जाहिर है, जो कमीज उतार सकता है, वह धोती भी खोल सकता है। इसलिए आशंका यह है कि धीरे-धीरे अन्य भारतीय भाषाओं की तरह हिंदी भी मरणासन्न होती जाएगी। आज हिंदी जितनी बची हुई है, उसका प्रधान कारण हिंदी क्षेत्र का अविकास है। आज अविकसित लोग ही हिंदी के अखबार पढ़ते हैं। उनके बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में जाने लगे हैं। जिस दिन यह प्रक्रिया पूर्णता तक पहुँच जाएगी, हिंदी पढ़नेवाले अल्पसंख्यक हो जाएंगे। विकसित हिंदी भाषी परिवार से निकला हुआ बच्चा सीधे अंग्रेजी पढ़ना पसंद करेगा। यह एक भाषा की मौत नहीं, एक संस्कृति की मौत है।